Religion

Bastar Dussehra : ना रामलीला ना रावण दहन, ऐसी जगह जहां अनूठे अंदाज में मनाया जाता है दशहरा

Bastar Dussehra : दशहरा का पर्व पूरे देश में धूमधाम से मनाया जाता है। इस पर्व को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक मानते है, इस दिन जहां पूरे देश में रावण दहन (Ravana Dahan) करने की परंपरा है। वहीं दूसरी ओर भारत में एक ऐसी भी जगह है जहां न रावण का पुतला जलाया जाता है और न ही रामलीला होती है। यहां तो अनूठे अंदाज में दशहरा (Bastar Dussehra) मनाया जाता है। जी हां अब आप सोच रहे होंगे की ये कैसा दशहरा जहां राम-रावण का कोई सरोकार नहीं। आइए जानते है आखिर ऐसी कौन सी जगह है…

Bastar Dussehra: यहां दशहरा मनाने का अलग ही है अंदाज

दरअसल, हम बात कर है छत्तीसगढ़ के वनांचल बस्तर (Bastar) की, जो कभी रावण नगरी हुआ करती थी। यहां आज भी रावण दहन नहीं किया जाता। आदिकाल (Primordial) में बस्तर को दण्डकारण्य (Dandakaranya) के नाम से भी जाना जाता था, जिसमें रावण राज में असुर वास (Asuras Live In Ravana’s Rule) करते थे। यहां 75 दिन तक दशहरा का पर्व चलता है, जिसे बस्तर दशहरा कहते है। इसमें कई रस्में होती हैं और 13 दिन तक दंतेश्वरी माता समेत अनेक देवी देवताओं की पूजा की जाती है।

Bastar Dussehra

9 दिनों तक विशाल रथ करता है शहर की परिक्रमा

यहां दशहरा के दौरान आकर्षण का केन्द्र (Center Of Attraction) होता है 9 दिनों तक शहर की परिक्रमा करने वाला विशालकाय रथ (Giant Chariot)। जो करीब 35 फीट उंचे व कईं टन वजनी इस रथ का निर्माण स्थानीय आदिवासियों (Local Tribals) द्वारा आज भी हाथों से पारंपरिक औजारों (Traditional Tools) के जरिए ही किया जाता है।

Bastar Dussehra

हरेली अमावस्या से शुरू होता है दशहरा

75 दिनों तक चलने वाला बस्तर दशहरा (Bastar Dussehra) की शुरुआत हरेली अमावस्या से होती है। इसमें सभी वर्ग, समुदाय और जाति-जनजातियों के लोग हिस्सा लेते हैं। इस पर्व में राम-रावण युद्ध की नहीं बल्कि बस्तर की मां दंतेश्वरी माता के प्रति अगाध श्रद्धा झलकती है। इस पर्व की शुरुआत हरेली अमावस्या (Hareli Amavasya) को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म पूरी करने के साथ होती है। इसके बाद बिरिंगपाल गांव के ग्रामीण सीरासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित कर डेरीगड़ाई रस्म पूरी करते हैं।

Bastar Dussehra

इसके बाद विशाल रथ निर्माण के लिए जंगलों से लकड़ी लाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। झारउमरगांव व बेड़ाउमरगांव के ग्रामीणों को रथ निर्माण की जिम्मेदारी निभाते हुए दस दिनों में पारंपरिक औजारों से विशाल रथ तैयार करना होता है।

काछनगादी की पूजा का विशेष प्रावधान

इस पर्व में काछनगादी की पूजा का विशेष प्रावधान है। रथ निर्माण के बाद पितृमोक्ष अमावस्या के दिन ही काछनगादी पूजा संपन्न की जाती है। इस पूजा में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी कराई जाती है। ये बालिका बेल के कांटों से तैयार झूले पर बैठकर रथ परिचालन व पर्व को सुचारु रूप से शुरू करने की अनुमति देती है।

Bastar Dussehra

लोक कल्याण की कामना की जाती है

दूसरे दिन गांव आमाबाल के हलबा समुदाय का एक युवक सीरासार में 9 दिनों की निराहार योग साधना में बैठ जाता है। ये पर्व को निर्विघ्न रूप से होने और लोक कल्याण की कमाना करता है। इस दौरान हर रोज शाम को दंतेश्वरी मां के छत्र को विराजित कर दंतेश्वरी मंदिर, सीरासार चौक, जयस्तंभ चौक व मिताली चौक होते रथ की परिक्रमा की जाती है।

पेड़ की छाल से बनी रस्सी से खींचते है रथ

भले ही वक्त बदल गया हो और साइंस ने तरक्की कर ली हो पर आज भी ये सबकुछ पारंपरिक तरीके से होता है। आज भी रथ में माईजी के छत्र को चढ़ाने और उतारने के दौरान बकायदा सशस्त्र सलामी दी जाती है। इसमें कहीं भी मशीनों का प्रयोग नहीं किया जाता है। पेड़ों की छाल से तैयार रस्सी से ग्रामीण रथ खींचते हैं। इस रस्सी को लाने की जिम्मेदारी पोटानार क्षेत्र के ग्रामीणों पर होती है।

Bastar Dussehra

दी जाती है जानवरों की बलि

इस पर्व (Bastar Dussehra) के दौरान हर रस्म में बकरा, मछली व कबूतर की बलि दी जाती है। वहीं अश्विन अष्टमी को निशाजात्रा रस्म में कम से कम 6 बकरों की बलि आधी रात को दी जाती है। इसमें पुजारी, भक्तों के साथ राजपरिवार सदस्यों की मौजूदगी होती है। रस्म में देवी-देवताओं को चढ़ाने वाले 16 कांवड़ भोग प्रसाद को तोकापाल के राजपुरोहित तैयार करते हैं। जिसे दंतेश्वरी मंदिर के समीप से जात्रा स्थल तक कावड़ में पहुंचाया जाता है। निशाजात्रा का दशहरा (Dussehra) के दौरान विशेष महत्व है। इस परंपरा को कैमरे में कैद करने विदेशी पर्यटकों में भी उत्साह होता है।

Bastar Dussehra

बता दें कि, दशहरा पर्व हमारे देश में काफी धूम-धाम से मनाया जाता है। इसे विजय दशमी भी कहा जाता है। शारदीय नवरात्रि के समय 9 दिन मां दुर्गा की पूजा-उपासना करने के बाद दसवें दिन रावण का पुतला बनाकर उसका दहन किया जाता है। इसका संबंध त्रेतायुग से है। त्रेतायुग में श्रीहर‍ि ने मर्यादा पुरुषोत्‍तम श्रीराम के रूप में अवतार लिया था।

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