काशी: भारत का एक ऐसा शहर जहां मृत्यु भी है उत्सव, जानिए क्यों है ये इतना खास
भारतीय संस्कृति में जीवन और मृत्यु को एक ही सिक्के का दो पहलु माना जाता है। मृत्यु और काशी का अपने आप में ही अनोखा रिश्ता है। दुनिया में लोग कहीं भी रहते हो मगर जीवन के बाद मोक्ष प्राप्त करने की चाह में वो भोलेनाथ की नागरी काशी ही आना चाहते हैं। सफेद चादर में लिपटा शरीर, लोगों की भीड़ और उसी भीड़ से आती ‘राम नाम सत्य है’ की आवाज, ऐसा दृश्य आपको कहीं मिले तो समझ जाइएगा आप बनारस के मणिकर्णिका घाट पर हैं।
देखा जाए तो मृत्यु के बाद पीने-पिलाने, खाने-खिलाने, नाचने-गाने और बकायदा जश्न मनाने का चलन कई जातियों में है। नगाड़े के डंके की जोशीली रिद्म पर थिरकते बूढ़े-बच्चे और नौजवान। किसी चेहरे पर क्लांति की कोई रेखा नहीं, हर होंठ पर मुस्कान। मद्य के सुरूर में मदमत्त लोगों का हर्षमिश्रित शोर। जुलूस चाहे जहां से भी निकाला हो मगर झूमता-घूमता बढ़ता चला आ रहा है भेलूपुरा से सोनारपुरा की ओर।
जुलूस भी आम सामान्य नहीं। इसका जोश-ओ-खरोश देखकर एकबारगी ऐसा भ्रम होता है मानो कोई वरयात्रा द्वाराचार के लिए वधू पक्ष के द्वार की ओर बढ़ रही हो। मगर अचानक ही यह भ्रम उस वक़्त टूट जाता है जब ‘यात्रा’ के नजदीक पहुंचने पर बाजे-गाजों के शोर के बीच ही ‘राम नाम सत्य है’ के मद्धम स्वर कानों से टकराने लगते हैं, उसी क्षण यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वह वरयात्रा नहीं बल्कि शवयात्रा है।
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बता दें की सदियों से काशी का मणिकर्णिका घाट लोगों के शव दाह का गवाह बनता आया है। गंगा के तट पर बसा बनारस, एक मात्र ऐसा शहर है जहां मरने के बाद मृत्यु का उत्सव मनाया जाता है, मरने की खुशी मनाई जाती है। खुशी, सांसारिक सुख त्यागने कि; खुशी, मोक्ष प्राप्त करने की और शायद इसी खुशी को देखने और भारतीय संस्कृति के इस पौराणिक मान्यता से रूबरू होने प्रत्येक वर्ष दुनिया भर से ढेरो पर्यटक काशी का रुख करते हैं। काशी में हर तरह की अनुभूति प्रपट करते हुए पूरे अस्सी घाटों के बीच मन की शांति के साथ उन्हें जीवन-मरण के सुख का भी ज्ञान हो जाता है।
आखिर क्यों, क्यों इस तरह का जोश, हर्ष उल्लास वो भी किसी अपने की मृत्यु पर बार बार यही सवाल मन में आ रहा था तभी ऐसे में एक सज्जन जो शवयात्रा में शामिल थे उन्होने बताया ‘हमार बाऊ एक सौ दुई साल तक जियलन, मन लगा के आपन करम कइलन, जिम्मेदारी पूरा कइलन। नाती-पोता, पड़पोता खेला के बिदा लेहलन त गम कइसन। मरे के त आखिर सबही के हौ एक दिन, फिर काहे के रोना-धोना। मटिये क सरीर मटिये बनल बिछौना।’
उस शक्स को शायद खुद नहीं मालूम कि उनकी जुबान से खुद कबीर बोल रहे हैं, जो कभी ‘निरगुनिया’ गाते बोल गए थे ‘माटी बिछौना माटी ओढ़ना माटी में मिल जाना होगा।’ जाने अनजाने में ही कितनी बड़ी बात बोल गया ये इंसान जो यकीनन हर किसी के जीवन का सबसे बड़ा सत्य है और शायद इसीलिए काशी का अपना ही महत्व है और इतनी खास है ये काशी।