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ये हैं कारगिल युद्ध के वो जांबाज सैनिक जिन्‍होंने पाकिस्‍तान के छुड़ा दिये थे छक्‍के

ये हैं कारगिल युद्ध के वो जांबाज सैनिक जिन्‍होंने पाकिस्‍तान के छुड़ा दिये थे छक्‍के

जब भी किसी युद्ध पर की चर्चा की जाती हैं तो सबसे पहले कारगिल के युद्ध पर चर्चा की जाती हैं, इस युद्ध में अपने अदम्य साहस और जांबाजी के बल पर दुश्मन के छक्के छुड़ाने वाले चार शहीदों को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। परमवीर चक्र सेना का सर्वोच्च सम्मान होता हैं और इस सम्मान को पाना हर फौजी की तमन्ना होती हैं| इसके लिए वो अपनी जान तक की भी बाजी लगा देते हैं| कारगिल के इन वीरों ने 1999 में जम्मू-कश्मीर के कारगिल में बड़े पैमाने पर घुसपैठ करने वाले पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ने के लिए अपने जान की बाजी लगा दी थी।

आइए जानते हैं इन वीर जवानो के बारे में।

ये हैं कारगिल युद्ध के वो जांबाज सैनिक जिन्‍होंने पाकिस्‍तान के छुड़ा दिये थे छक्‍के

(1) कैप्टन विक्रम बत्रा

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के पालमपुर में 9 सितंबर 1974 को कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म हुआ था। पढ़ाई पूरी करने के बाद इनका चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। अपनी ट्रेनिंग पूरी करने के बाद इन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर में सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति हुये| 1999 में विक्रम बत्रा को कैप्टन बना दिया गया। कैप्टन विक्रम बत्रा को श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी दिया गया। विक्रम बत्रा शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध थे| बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम प्रसिद्ध हो गए|

ये हैं कारगिल युद्ध के वो जांबाज सैनिक जिन्‍होंने पाकिस्‍तान के छुड़ा दिये थे छक्‍के

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उन्हें ‘कारगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी अपने कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी कमान विक्रम बत्रा को सौंपी गई। उन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों के मौत की नींद सुला दिये| लड़ाई के समय अपने एक साथी की जान बचाने में कैप्टन बत्रा की जान चली गयी और वे ‘जय माता दी’ कहते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उनके अदम्य साहस और पराक्रम के लिए उन्हें 15 अगस्त 1999 को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया और यह सम्मान उनके पिता जीएल बत्रा को प्रदान किया गया|

ये हैं कारगिल युद्ध के वो जांबाज सैनिक जिन्‍होंने पाकिस्‍तान के छुड़ा दिये थे छक्‍के

(2) लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय

उत्तर प्रदेश राज्य के सीतापुर जिले के रुधा गांव में लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को हुआ था। मनोज बतौर कमीशंड ऑफिसर 1/11 गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में भर्ती हुए। 1999 में उनके बटालियन के बी कंपनी को खालूबार को फतह करने का जिम्मा सौंपा गया। मनोज पांचवें नंबर के प्लाटून कमांडर थे और उन्हें इस कंपनी की अगुवाई करते हुए मोर्चे की ओर बढ़ना था। मनोज के टुकड़ी को दोनों तरह की पहाड़ियों की जबरदस्त बौछार का सामना करना पड़ा।

ये हैं कारगिल युद्ध के वो जांबाज सैनिक जिन्‍होंने पाकिस्‍तान के छुड़ा दिये थे छक्‍के

मनोज ने एक के बाद एक चार दुश्मन को मार गिराया। इस कार्रवाई में उनके कंधे और टांगे तक घायल हो गई थी| इसके बाद दुश्मन की एक मीडियम मशीन गन से छूटी हुई गोली उनके माथे पर लगी। मनोज कुमार पांडेय की अगुवाई में की गई इस कार्यवाही में दुश्मन के 11 जवान मारे गए और छह बंकर भारत की इस टुकड़ी के हाथ आ गए और खालूबार भारत की सेना के अधिकार में आ गया था।

(3) राइफलमैन संजय कुमार

हिमाचल प्रदेश के विलासपुर में राइफलमैन संजय कुमार का जन्म 3 मार्च, 1976 को हुआ था। संजय कुमार 26 जुलाई 1996 को फौज में शामिल हुये| संजय 4 जुलाई 1999 को फ्लैट टॉप प्वाइंट 4875 की ओर कूच किया और संजय ने एकाएक उस जगह हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में तीन दुश्मन को मार गिराया और उसी जोश में गोलाबारी करते हुए दूसरे ठिकाने की ओर बढ़े। राइफल मैन इस मुठभेड़ में खुद भी लहूलुहान हो गए थे, लेकिन अपनी ओर से बेपरवाह वह दुश्मन पर टूट पड़े।

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संजय के इस चमत्कारिक कारनामे को देखकर उसकी टुकड़ी के दूसरे जवान बहुत उत्साहित हुए और उन्होंने बेहद फुर्ती से दुश्मन के दूसरे ठिकानों पर धावा बोल दिया। युद्ध के दौरान संजय कुमार खून से लथपथ थे लेकिन वो फिर भी रण छोड़ने को तैयार नहीं थे| अपने इस जज्बे की वजह से राइफल मैन संजय कुमार ने अभियान में जीत हासिल की।

(4) ग्रिनेडियर योगेंद्र सिंह यादव

ये हैं कारगिल युद्ध के वो जांबाज सैनिक जिन्‍होंने पाकिस्‍तान के छुड़ा दिये थे छक्‍के

ग्रिनेडियर योगेंद्र सिंह यादव सबसे कम उम्र में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले योद्धा बने| इनका न्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के औरंगाबाद अहीर गांव में 10 मई, 1980 को हुआ था। योगेंद्र की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सेना की थी| 27 दिसंबर, 1996 को सेना की 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए| इस युद्ध में योगेंद्र का बड़ा योगदान रहा है। उनकी कमांडो प्लाटून ‘घटक’ कहलाती थी। योगेंद्र को 16,500 फीट ऊंची बर्फ की चोटी पर चढ़ाई करना था|

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जैसे ही वे आधी ऊंचाई पर चढ़े ही थे कि दुश्मनो ने गोलियां दागना शुरू कर दिया| जिसकी वजह से उनके दो साथी मारे गए। इसके बावजूद योगेंद्र लगातार ऊपर की ओर चढ़ रहे थे तभी अचानक एक गोली उनके कंधे पर और दो गोलियां जांघ व पेट के पास लगीं लेकिन वे फिर भी नहीं रुके और आगे चढ़ते ही रहे और दुश्मन के बंकर की ओर रेंगकर गए और एक ग्रेनेड फेंक कर उनके चार सैनिकों को वहीं ढेर कर दिया। अब आमने-सामने की मुठभेड़ शुरू हो चुकी थी और उस मुठभेड़ में बचे-खुचे जवान भी टाइगर हिल की भेंट चढ़ गए लेकिन इसके बावजूद टाइगर हिल को जीत लिया गया था और इस जीत में योगेंद्र का बड़ा योगदान था।

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